रिपोर्ट : सुनील सोनकर
- अगलाड़ यमुनाघाटी विकास मंच द्वारा मसूरी में जनजातीय पुरानी दीवाली(बग्वाली)मनाया गया जिसमें संपूर्ण यमुना घाटी व अगलाड़ घाटी के मसूरी में रहने वाले प्रवासियों ने भारी संख्या में भाग लिया।
- मसूरी कैम्पटी रोड़ पर पुरानी टोल चौकी के समीप मंच द्वारा भव्य कार्यक्रम आयोजित किया।
जिसमें ग्रामीणो ने पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ नाग देवता की पूजा अर्चना कर बग्वाल त्योहार मनाया गया । बूढ़ी दीपावली, बग्वाली या पुरानी दीपावली के नाम से मनाए जाने वाला जनजातीय पर्व धूमधाम के साथ शुरू हुआ। दीपावली से ठीक 30 दिनों के बाद प्रदेश के जौनपुर, रवाईं और जौनसार बावर क्षेत्र में मनाए जाने वाली पहाडों की मुख्य बूढ़ी दीपावली का अगाज हो गया है। कार्यक्रम के दौरान बग्वाल (भांड) का आयोजन किया गया जिसको देवताओं और असुरों के बीच हुए समुद्र मंथन के रूप में दर्शाया गया। इसमें बाबई घास से बनी विशाल रस्सी का प्रयोग किया जाता है।
इसकी खासियत यह है कि रस्सी बनाने के लिए बाबई घास को इसी दिन काटकर बनाया जाता है। मान्यता के अनुसार , रस्सी बनाने के बाद स्नान करवाकर विधिवत पूजा अर्चना की जाती है। होलियात का आयोजन भी किया गया जिसमें भीमल की लकड़ियों से बने होल्ले खेले गए तथा भिरूड़ी भी बांटी गई। इस मौके पर इस पर्व में पूरे जौनपुर-जौनसार व रवांई में उड़द की दाल से बनाये जाने वाले पकोड़े, साठी से बनी चिउड़ा तथा भिरूड़ी बराज के अखरोट प्रसाद स्वरूप वितरित किये गए।ग्रामीणो ने बताया की बग्वाल भांड जौनपूर क्षेत्र का मषहूर त्योैहार है जिसे ग्रामीण और आसपास के क्षेत्र के लोग बडी घूमघाम के साथ मनाते है
वही इसी दिन गांव में विषेश व्यंजन तैयार किये जाते है वह एक दूसरो को परोसे जाते है उन्होने बताया कि भगवान रामचद्र जी के बनवास संे आयोध्या लौटने के बाद उत्तराखण्ड के पहाडी क्षेत्रो में करीब एक माह के बाद पता चला था जो ग्रामीणों में खुषी की लहर दौड गई जिसके स्वरूप ग्रामीण इस दिवस को बग्वाल के रूप् में बनाते हुए अपनी पराम्परिक वेषभुषा में नाचते गाते नजर आये। मंच के कोषाध्यक्ष सूरत सिंह खरकाई ने सभी क्षेत्रवासियों को बग्वाल कि शुभकामनाये देते हुए कहा की पर्वतिय इलाकों के पहाड सरीखे जीवन में जब तीज-त्योहारों के क्षण आते है तो खेत-खलिहान भी थिरक उठतें है।
बग्वाल यानी दिपावली भी इसी का हिस्सा है गाव में रात्री में सभी लोग किसी खेत खलिहान पर जमा होने के साथ ही भैलो जो चीड़ की लकड़ियां से बनी मशाल को घूमाते हुए नृत्य करते है। उन्होने कहा की त्योहारों के पारंपरिक स्वरूप को बचाये रखने की दिशा में क्षेत्र में बग्वाल कार्यक्रम का आयोजन किया गया जिससे स्थानीय लोगों के साथ पर्यटकों को अपनी संस्कृतिक के रूबरू करवाया जा सके और र्प्यटन को बढावा मिल सके। वही उन्होने बताया कि सभी लोग हशोउल्लास से बग्वाल त्यौहार को बना रहे है।
उन्होने बताया कि डिबसा(होलियात)जलाने के बाद रासौ, तांदी व सराई नृत्यों का आयोजन किया गया । मंच की बैठक में इस बात पर विशेष चर्चा हुई कि बहुत से प्रवासी बग्वाली त्योहार में अपने गांव नहीं जा पाते हैं इसलिये क्यों न मसूरी में ही बग्वाली का आयोजन किया गया जिससे आने वाली पीढ़ी भी अपनी बहुमूल्य सांस्कृतिक धरोहर से रूबरू हो सके और उनका जुड़ाव अपनी संस्कृति से बना रहे।